- Parvati Jangid Suthar
भगवान महावीर के 5 व्रत और 12 वचन जीवन को नई राह के साथ आत्म साक्षात्कार का द्वार खोलते हैं
सिद्धत्थरायपियकारिणीहिं, णयरम्मि कुण्डले वीरो।
उत्तरफग्गुणिरिक्खे, चित्तसियातेरसीए उप्पण्णो।।

बिहार के सीमान्त क्षेत्रों में "सीमा प्रहरी और सीमाजन संवाद यात्रा" के दौरान भगवान महावीर स्वामी के जन्मस्थान-कुण्डलपुर के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आइये भगवान महावीर स्वामी के और करीब चलें

महावीर जीवनी :-
महावीर जैन धर्म में वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौंबीसवें (२४वें) तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार साल पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। महावीर को 'वर्धमान', वीर', 'अतिवीर' और 'सन्मति' भी कहा जाता है। तीस वर्ष की आयु में गृह त्याग करके, उन्होंने एक लँगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ।
उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। सभी जैन मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को इन पंचशील गुणों का पालन करना अनिवार्य है| महावीर ने अपने उपदेशों और प्रवचनों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाई और मार्गदर्शन किया।

प्रारंभिक जीवन :
भगवान महावीर, ऋषभदेव से प्रारंभ हुई वर्तमान चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे। प्रभु महावीर प्रारंभिक तीस वर्ष राजसी वैभव एवं विलास के दलदल में 'कमल' के समान रहे। मध्य के बारह वर्ष घनघोर जंगल में मंगल साधना और आत्म जागृति की आराधना में, बाद के तीस वर्ष न केवल जैन जगत या मानव समुदाय के लिए अपितु प्राणी मात्र के कल्याण एवं मुक्ति मार्ग की प्रशस्ति में व्यतीत हुए।
महावीर स्वामी का जीवन काल 599 ई. ईसा पूर्व से 527 ई. ईसा पूर्व तक माना जाता है। इनकी माता का नाम 'त्रिशला देवी' और पिता का नाम 'सिद्धार्थ' था। बचपन में महावीर का नाम 'वर्धमान' था, लेकिन बाल्यकाल से ही यह साहसी, तेजस्वी, ज्ञान पिपासु और अत्यंत बलशाली होने के कारण 'महावीर' कहलाए। भगवान महावीर ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था, जिस कारण इन्हें 'जीतेंद्र' भी कहा जाता है।
कलिंग नरेश की कन्या 'यशोदा' से महावीर का विवाह हुआ। किंतु 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्येष्ठबंधु की आज्ञा लेकर इन्होंने घर-बार छोड़ दिया और तपस्या करके 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त किया। वो कुंडलपुर के निकट संदावन नामक एक बाग़ में गये |वहा पर उन्होंने बिना कपड़ो के अशोक के पेड़ के नीचे कठोर तपस्या की. आचारंग सूत्र में उनके कठिनाइयों और अपमान को दर्शाया गया है | बंगाल के पूर्वी भाग में वो बड़ी पीडाओ से गुजरे | बच्चो ने उन पर पत्थर फेंके और अक्सर लोगो ने उनको अपमानित किया |
कल्प सूत्र के अनुसार अस्तिग्राम , चम्पापुरी,प्रस्तिचम्पा, वैशाली ,वाणीजग्रम , नालंदा ,मिथिला ,भद्रिका ,अलाभिका ,पनिताभूमि ,श्रस्व्ती और पवनपुरी में उन्होंने अपने तपस्वी जीवन के 42 मानसून गुजारे. महावीर ने पार्श्वनाथ के आरंभ किए तत्वज्ञान को परिमार्जित करके उसे जैन दर्शन का स्थायी आधार प्रदान किया। महावीर ऐसे धार्मिक नेता थे, जिन्होंने राज्य का या किसी बाहरी शक्ति का सहारा लिए बिना, केवल अपनी श्रद्धा के बल पर जैन धर्म की पुन: प्रतिष्ठा की। आधुनिक काल में जैन धर्म की व्यापकता और उसके दर्शन का पूरा श्रेय महावीर को दिया जाता है।

12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद 43 वर्ष की उम्र में उनको केवल जन्म की अवस्था प्राप्त हुयी जिसका अर्थ है अलगाव-एकीकरण का ज्ञान | इससे उन्हें सर्वज्ञता का तात्पर्य का ज्ञान हुआ और बौधिक ज्ञान से छुटकारा मिला | इनको ये ज्ञान रजुप्लिका नदी के किनारे एक शाल के पेड़ के नीचे हुआ |सूत्रक्रितंग में माहवीर की सारी खूबियों और ज्ञान को बताया गया है | 30 साल के सर्वज्ञता के बाद महावीर भारत और अन्यदेशो में घुमे और दर्शनशास्र का ज्ञान दिया |
परम्परा के अनुसार महावीर के 14,000 योगी , 36,000 मठवासिनी, 159,000 श्रावकand 318,000 श्राविका उनके अनुयायी बने | कुछ शाही परिवार भी उनके अनुयायाई बने | जैन ग्रंथो के अनुसार महवीर ने मोक्ष प्राप्त किया क्योंकि उनकी आत्मा सिद्ध हो गयी थी | उसी दिन उनके मुख्य अनुयायी गांधार ने केवल जन्म लिया | मह्पुरान के अनुसार तीर्थंकरो के निर्वाण के बाद देवताओ ने उनका अंतिम संस्कार किया |
महावीर स्वामी के अनेक नाम हैं- 'अर्हत', 'जिन', 'निर्ग्रथ', 'महावीर', 'अतिवीर' आदि। इनके 'जिन' नाम से ही आगे चलकर इस धर्म का नाम 'जैन धर्म' पड़ा। जैन धर्म में अहिंसा तथा कर्मों की पवित्रता पर विशेष बल दिया जाता है। उनका तीसरा मुख्य सिद्धांत 'अनेकांतवाद' है, जिसके अनुसार दूसरों के दृष्टिकोण को भी ठीक-ठाक समझ कर ही पूर्ण सत्य के निकट पहुँचा जा सकता है। भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे। वे सभी के साथ सामान भाव रखते थे और किसी को कोई भी दुःख देना नहीं चाहते थे। अपनी श्रद्धा से जैन धर्म को पुनः प्रतिष्ठापित करने के बाद कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली के दिन पावापुरी में भगवान महावीर ने निर्वाण को प्राप्त किया।
अहिंसा और अपरिग्रह की वह साक्षात मूर्ति थे। वह सबको समान मानते थे और किसी को भी कोई दु:ख देना नहीं चाहते थे। अपनी इसी सोच पर आधारित एक नूतन विज्ञान भगवान महावीर ने विश्व को दिया। यह था परितृप्ति का विज्ञान। इच्छा और आवश्यकता प्रत्येक प्राणी के साथ जुड़ी हैं। जब व्यक्ति अपने जीवन को इच्छा से संचालित करता है तो निरन्तर नई आवश्यकताएँ पैदा होने का सिलसिला चल निकलता है। जो मानव के लिए कष्टों का घर होता है। इच्छा आवश्यकता को और आवश्यकता इच्छा को जन्म देती है।
भगवान महावीर इस अन्तहीन सिलसिले को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंनें कहा कि प्राणी अपने लिए सुख चाहता है, दु:ख किसी को भी प्रिय नहीं। इसलिए संसार का कोई भी प्राणी वाध्य नहीं है। यह सिद्धांत अहिंसा की प्रासंगिकता को त्रैकालिक सिद्ध करने में सक्षम हुआ। उन्होंने शरीर को कष्ट देने को ही अहिंसा नहीं माना बल्कि मन, वचन कर्म से भी किसी को आहत करना उनकी दृष्टि से अहिंसा ही है। भगवान महावीर के विचारों को किसी काल, देश अथवा सम्प्रदाय की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।
यह प्राणी मात्र का धर्म है। महावीर ने धर्म का मर्म अनेकान्त और अहिंसा बताया। उन्होंने कहा धर्म का हृदय अनेकान्त है और अनेकान्त का हृदय है समता। समता का अर्थ है परस्पर सहयोग, समन्वय, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहजता। उन्होंने कहा कि सबकी बात शान्तिपूर्वक सुनी जानी चाहिए यदि ऐसा होगा तो घृणा, द्वेष, ईर्ष्या का स्वयं ही नाश हो जाएगा। उन्होंने साधन और साध्य दोनों की पवित्रता और शुद्धि पर बल दिया।

वैराग्य :
महावीर स्वामी के माता पिता की मृत्यु के पश्चात उनके मन मे वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, परंतु जब उन्होने इसके लिए अपने बड़े भाई से आज्ञा मांगी तो उन्होने अपने भाई से कुछ समय रुकने का आग्रह किया| तब महावीर स्वामी जी ने अपने भाई की आज्ञा का मान रखते हुये 2 वर्ष पश्चात 30 वर्ष की आयु मे वैराग्य लिया. इतनी कम आयु में घर का त्याग कर ‘केशलोच’ के साथ जंगल में रहने लगे.
वहां उन्हें 12 वर्ष के कठोर तप के बाद जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ. इसके बाद उन्हें ‘केवलिन’ नाम से जाना गया तथा उनके उपदेश चारों और फैलने लगे. बडे-बडे राजा महावीर स्वामी के अनुयायी बने उनमें से बिम्बिसार भी एक थे. 30 वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ महात्माओं में शुमार हुए.
तीस वर्ष की आयु मे महावीर स्वामी ने पूर्ण संयम रखकर श्रमण बन गये, तथा दीक्षा लेते ही उन्हे मन पर्याय का ज्ञान हो गया. दीक्षा लेने के बाद महावीर स्वामी जी ने बहुत कठिन तापस्या की| और विभिन्न कठिन उपसर्गों को समता भाव से ग्रहण किया. साधना के बारहवे वर्ष मे महावीर स्वामी जी मेढ़िया ग्राम से कोशम्बी आए और तब उन्होने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक बहुत ही कठिन अभिग्रह धारण किया. इसके पश्चात साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और साधना के बाद ऋजुबालुका नदी के किनारे महावीर स्वामी जी को शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान- केवल दर्शन की उपलब्धि हुई.

भगवान महावीर के 5 व्रत और 12 वचन अपनाने से जीवन को मिलती नई राह
भगवान महावीर स्वामी के अनमोल वचन
गवान महावीर ने बताएं जीवन जीने के पांच महाव्रत जिसे अपनाकर कोई अपने जीवन को सार्थक बना सकता है।
1- सत्य- महावीर स्वामी ने सत्य के बारे में कहा है कि- हे पुरुष! तू सत्य को ही सच्चा तत्व समझ। जो बुद्धिमान सत्य की ही आज्ञा में रहता है, वह मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।
2- अहिंसा– महावीर स्वामी ने अहिंसा पर कहा है कि इस लोक में जितने भी जीव है उनकी हिंसा मत कर, उनको उनके पथ पर जाने से न रोको। उनके प्रति अपने मन में दया का भाव रखो। उनकी रक्षा करो।
3- ब्रह्मचर्य– महावीर स्वामी ब्रह्मचर्य के बारे में अपने बहुत ही अमूल्य उपदेश देते हैं कि ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय की जड़ है। तपस्या में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तपस्या है। जो पुरुष स्त्रियों से संबंध नहीं रखते, वे मोक्ष मार्ग की ओर बढ़ते हैं।
4- अपरिग्रह – भगवान महावीर ने अपरिग्रह पर कहा है कि जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसको दुःखों से कभी छुटकारा नहीं मिल सकता।
5- अचौर्य– जैन धर्म में महावीर स्वामी द्वारा कहा गया है कि अगर दुसरे के वस्तु बिना उसके दिए हुआ ग्रहण किया जाए तो वह चोरी है।

श्रेष्ठ जीवन में भगवान महावीर स्वामी के ये 10 सूत्र बनेंगे सहायक
1- किसी आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने असल रूप को ना पहचानना है और यह केवल आत्म ज्ञान प्राप्त कर के ठीक की जा सकती है।
2- आत्मा अकेले आती है अकेले चली जाती है, न कोई उसका साथ देता है न कोई उसका मित्र बनता है।
3- प्रत्येक जीव स्वतंत्र है, कोई किसी और पर निर्भर नहीं करता।
4- भगवान का अलग से कोई अस्तित्व नहीं है, हर कोई सही दिशा में सर्वोच्च प्रयास कर के देवत्त्व प्राप्त कर सकता है।
5- प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है. आनंद बाहर से नहीं आता।
6- सभी जीवित प्राणियों के प्रति सम्मान अहिंसा है।
7- सभी मनुष्य अपने स्वयं के दोष की वजह से दुखी होते हैं, और वे खुद अपनी गलती सुधार कर प्रसन्न हो सकते हैं।
8- स्वयं से लड़ो, बाहरी दुश्मन से क्या लड़ना? वह जो स्वयं पर विजय कर लेगा उसे आनंद की प्राप्ति होगी।
9- खुद पर विजय प्राप्त करना लाखों शत्रुओं पर विजय पाने से बेहतर है।
10- आपकी आत्मा से परे कोई भी शत्रु नहीं है. असली शत्रु आपके भीतर रहते हैं, वो शत्रु हैं क्रोध, घमंड, लालच, आसक्ति और नफरत।

भगवान महावीर स्वामी के जीवन की 5 प्रेरक कथाएं
1. उन्मत हाथी हुआ शांत
राजा सिद्धार्थ की गजशाला में सैकड़ों हाथी थे। एक दिन चारे को लेकर दो हाथी आपस में भिड़ गए। उनमें से एक हाथी उन्मत्त होकर गजशाला से भाग निकला। उसके सामने जो भी आया, वह कुचला गया। उसने सैकड़ों पेड़ उखाड़ दिए, घरों को तहस-नहस कर डाला और आतंक फैलाकर रख दिया।
महाराज सिद्धार्थ के अनेक महावत और सैनिक मिलकर भी उसे वश में नहीं कर सके। वर्द्धमान को यह समाचार मिला तो उन्होंने आतंकित राज्यवासियों को आश्वस्त किया और स्वयं उस हाथी की खोज में चल पड़े।
प्रजा ने चैन की सांस ली, क्योंकि वर्द्धमान की शक्ति पर उसे भरोसा था। वह उनके बल और पराक्रम से भली-भांति परिचित थी। एक स्थान पर हाथी और वर्द्धमान का सामना हो गया। दूर से हाथी चिंघाड़ता हुआ भीषण वेग से दौड़ा चला आ रहा था मानो उन्हें कुचलकर रख देगा। लेकिन उनके ठीक सामने पहुंचकर वह ऐसे रुक गया मानो किसी गाड़ी को आपातकालीन ब्रेक लगाकर रोक दिया गया हो।
महावीर ने उसकी आंखों में झांकते हुए मीठे स्वर में कहा- 'हे गजराज! शांत हो जाओ! अपने पूर्व जन्मों के फलस्वरूप तुम्हें पशु योनि में जन्म लेना पड़ा। इस जन्म में भी तुम हिंसा का त्याग नहीं करोगे तो अगले जन्म में नर्क की भयंकर पीड़ा सहनी होगी। अभी समय है, अहिंसा का पालन कर तुम अपने भावी जीवन को सुखद बना सकते हो।'
वर्द्धमान के उस उपदेश ने हाथी के अंतर्मन पर प्रहार किया। उसके नेत्रों से आंसू बहने लगे। उसने सूंड उठाकर उनका अभिवादन किया और शांत भाव से गजशाला की ओर लौट गया।
2. ग्वाले को सद्बुद्धि
एक दिन संध्या के समय महावीर गांव के निकट पहुंचे तो वहां एक वृक्ष के नीचे निश्चल खड़े होकर ध्यान करने लगे। तभी एक ग्वाला अपनी कुछ गायों को लेकर वहां आया और उन्हें संबोधित करके बोला- 'हे मुनि! मैं गांव में दूध बेचने जा रहा हूं। मेरे लौटने तक मेरी गायों का ध्यान रखना।'
इतना कहकर उनका जवाब सुने बिना वह वहां से चला गया। कुछ समय बाद वह लौटा तो देखा कि महावीर स्वामी ज्यों के त्यों खड़े हैं लेकिन गायें वहां नहीं हैं। उसने पूछा- 'मुनि! मेरा पशु-धन कहां हैं?'
महावीर ने कोई उत्तर नहीं दिया तो इधर-उधर देखते हुए वह जंगल में घुस गया और पूरी रात वहां अपनी गायें तलाश करता रहा। इसी बीच गायें चरकर लौट आईं और महावीर को घेरकर बैठ गईं। सुबह थका-मांदा ग्वाला लौटा तो गायों को वहां देखकर आगबबूला हो उठा- 'इस मुनि ने मुझे तंग करने के लिए मेरी गायों को छिपा दिया था। अभी इसकी खबर लेता हूं।'
यह कहकर उसने गायों को बांधने वाली रस्सी अपनी कमर से खोली और महावीर पर वार करने को हुआ। तभी एक दिव्य पुरुष ने वहां प्रकट होकर उसे रोक लिया- 'ठहरो मूर्ख! यह क्या अपराध करने जा रहे हों। तुम बिना इनका उत्तर सुने अपनी गायें इनकी रखवाली में छोड़कर गए। अब पूरी गायें पाकर भी इन्हें दोष दे रहे हो। मूर्ख! ये भावी तीर्थंकर हैं।' यह सुनकर ग्वाला महावीर के चरणों में गिर पड़ा और क्षमायाचना करके वहां से चला गया।

3. भील का हृदय-परिवर्तन
पुष्कलावती नामक देश के एक घने वन में भीलों की एक बस्ती थी। उनके सरदार का नाम पुरूरवा था। उसकी पत्नी का नाम कालिका था। दोनों वन में घात लगाकर बैठ जाते और आते-जाते यात्रियों को लूटकर उन्हें मार डालते। यही उनका काम था।
एक बार सागरसेन नामक एक जैनाचार्य उस वन से गुजरे तो पुरूरवा ने उन्हें मारने के लिए धनुष तान लिया। ज्यों ही वह तीर छोड़ने को हुआ, कालिका ने उसे रोक लिया-
'स्वामी! इनका तेज देखकर लगता है, ये कोई देवपुरुष हैं। ये तो बिना मारे ही हमारा घर अन्न-धन से भर सकते हैं।'
पुरूरवा को पत्नी की बाच जंच गई। दोनों मुनि के निकट पहुंचे तो उनका दुष्टवत व्यवहार स्वमेव शांत हो गया और वे उनके चरणों में नतमस्तक हो गए।
मुनि ने अवधिज्ञान से भांप लिया कि वह भील ही 24वें तीर्थंकर के रूप में जन्म लेने वाला है अत: उसके कल्याण हेतु उन्होंने उसे अहिंसा का उपदेश दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने को कहा।
भील ने उनकी बात को गांठ में बांध लिया और अहिंसा का व्रत लेकर अपना बाकी जीवन परोपकार में बिता दिया।
4. निर्धनता से मुक्ति दिलाई
महावीर मुक्तिपथ पर दृढ़ कदमों से बढ़े जा रहे थे। तभी पीछे से उन्हें एक करुण पुकार सुनाई दी। उनके कदम ठिठक गए। पीछे मुड़कर देखा तो एक दुर्बल ब्राह्मण लाठी के सहारे गिरता-पड़ता दौड़ा आ रहा था। कुछ पल बाद ही वह महावीर के कदमों में आकर गिर पड़ा। उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे। फिर लड़खड़ाती जुबान से वह बोला- 'मेरी सहायता कीजिए राजकुमार वर्द्धमान। मुझे कुछ दीजिए। मेरी निर्धनता दूर कीजिए।'
वह बूढ़ा ब्राह्मण सोम शर्मा था, जो प्राय: उनसे दान-दक्षिणा लेने आता रहता था। वे भी आवश्यकतानुसार उसकी मदद करते रहते थे। उसकी हालत देखकर महावीर सहानुभूति से द्रवित हो गए। लेकिन आज देने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। तभी उन्हें कंधे पर पड़े हुए दिव्य वस्त्र का ध्यान आया। उन्होंने उसे आधा फाड़कर सोम शर्मा को दे दिया। वह खुशी से भर उठा और उसे एक जौहरी के पास ले गया। जौहरी उसे देखकर बोला- 'इसका आधा भाग कहां है? यदि तुम वह हिस्सा भी ले आओ तो मैं तुम्हें एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं।'
लालच में डूबा ब्राह्मण वापस महावीर के पीछे भागा और जहां-जहां वे गए, उनका पीछा करता रहा। लगभग एक साल बाद महावीर के कंधे से कपड़े का वह टुकड़ा गिरा तो सोम शर्मा उसे ले भागा और एक लाख स्वर्ण मुद्राओं में बेच दिया।

5. शूलपाणि का क्रोध नष्ट कर किया उद्धार
घूमते हुए महावीर वेगवती नदी के किनारे स्थित एक उजाड़ गांव के निकट पहुंचे। गांव के बाहर एक टीले पर एक मंदिर बना हुआ था। उसके चारों ओर हड्डियों और कंकालों के ढेर लगे थे। महावीर ने सोचा, यह स्थान उनकी साधना के लिए ठीक रहेगा। तभी कुछ ग्रामीण वहां से गुजरे और उनसे बोले- यहां अधिक देर मत ठहरो मुनिराज। यहां जो भी आता है, उसे मंदिर में रहने वाला दैत्य शूलपाणि चट कर जाता है। ये हड्डियां ऐसे ही अभागे लोगों की हैं। यह गांव कभी भरापूरा हुआ करता था। उस दैत्य ने इसे उजाड़कर रख दिया है।'
यह कहकर ग्रामीण तेज कदमों से वहां से चले गए। महावीर ने ग्रामवासियों के मन का भय दूर करने की ठानी और उस मंदिर के प्रांगण में एक स्थान पर खड़े होकर ध्यान करने लगे। जल्दी ही वे अंतरकेंद्रित हो गए।
अंधेरा घिरते ही वातावरण में भयंकर गुर्राहट गूंजने लगी। हाथ में भाला लिए शूलपाणि दैत्य वहां प्रकट हुआ और महावीर को सुलगते नेत्रों से घूरते हुए भयंकर क्रोध से गुर्राने लगा। उसे आश्चर्य हो रहा था कि उससे भयभीत हुए बिना उसके सामने खड़े होकर ही एक मानव ध्यान-साधना में लीन था। वह मुंह से गड़गड़ाहट का शोर करते हुए मंदिर की दीवारों को हिलाने लगा। लेकिन महावीर मुनि न तो भयभीत हुए, न ही उनकी तंद्रा टूटी। अपने छल-बल से शूलपाणि ने वहां एक पागल हाथी प्रकट किया। वह महावीर को अपनी पैनी सूंड चुभोने लगा। फिर उन्हें उठाकर चारों ओर घुमाने लगा। जब महावीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो वहां एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ। वह तीखे नख और दांतों से उन पर प्रहार करने लगा। अगली बार एक भयंकर विषधर उन पर विष उगलने लगा। इतने पर भी महावीर ध्यानमग्न रहे तो शूलपाणि भाले की नुकीली नोक उनकी आंखों, कान, नाक, गर्दन और सिर में चुभोने लगा। लेकिन महावीर ने शरीर से बिलकुल संबंध-विच्छेद कर लिया था अत: उन्हें जरा दर्द का अनुभव नहीं हुआ। यह सहनशीलता की पराकाष्ठा थी, जो केवल तीर्थंकर में ही हो सकती थी।
शूलपाणि समझ गया कि वह मनुष्य निश्चित ही कोई दिव्य प्राणी है। वह भय से थर्राने लगा। तभी महावीर के शरीर से एक दिव्य आभा निकलकर दैत्य के शरीर में समा गई और देखते ही देखते क्रोध पिघल गया, गर्व चूर-चूर हो गया। वह महावीर के चरणों में लोट गया और क्षमा मांगने लगा।
महावीर ने नेत्र खोले और उसे आशीर्वाद देते हुए करुणापूर्ण स्वर में बोले- 'शूलपाणि! क्रोध से क्रोध की उत्पत्ति होती है और प्रेम से प्रेम की। यदि तुम किसी को भयभीत न करो तो हर भय से मुक्त रहोगे। इसलिए क्रोध की विष-बेल को नष्ट कर दो।' शूलपाणि के नेत्र खुल गए। उसका जीवन बदल गया।
